Vidyasagar Maharaj Sallekhana : जैन मुनि आचार्य विद्यासागर महाराज अभी कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में रविवार को अपना देह का त्याग कर दिए। उन्होंने सलेखना प्रथा का पालन किया और अपने देह का त्याग कर दिया। काफी लंबे समय से जैन धर्म में यह प्रथा चल रही है। जैन धर्म में जब किसी संत को एहसास होता है कि उनकी मौत करीब है तो वह अपने शरीर के प्रति सारे मोह को त्याग देते हैं और अन्य जल्द त्याग देते हैं। वे अन्न त्याग कर समाधि लगते हैं और इस अवस्था में उनके प्राण छूट जाता है।
जानिए क्या है सल्लेखना का मतलब
धार्मिक जानकारों का कहना है कि सत और लिखना से मिलकर सल्लेखना शब्द बना है जिसका मतलब होता है जीवन के कर्मों का सही लेखा जोखा। जब किसी जैन संत को लगता है कि अब उसकी जिंदगी कम दिन की शेष है तो वह खुद ही अपनी जिंदगी का त्याग कर देते है। ऐसे में इसे साधु मरण कहा जाता है।
जैन धर्म में इस प्रथा को संथारा (Vidyasagar Maharaj Sallekhana) भी कहा जाता है, कहा जाता है कि इस पद्धति से इंसान अपने कर्मों के बंधन को कम कर देता है और अच्छे बुरे कर्मों को त्याग कर ईश्वर के पास चला जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बदला हाई कोर्ट का फैसला
राजस्थान हाई कोर्ट ने संथारा प्रथा को आत्महत्या बताया था और कोर्ट ने कहा था कि यह प्रथा और इस प्रथा को प्रेरित करने वाले के खिलाफ आपराधिक मुकदमा दर्ज करनी चाहिए। इसके बाद जैन संत काफी गुस्सा हो गए थे जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने 20 दिन बाद ही मात्र 1 मिनट में फैसला बदल दिया। सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाई कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया।
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रिपोर्ट की माने तो हर साल 200 से 300 लोग (संत/सतियां)इस अभ्यास के जरिए अपने प्राण का त्याग करते हैं। 2006 में कैंसर से जूझ रही एक महिला ने जैन मुनि से इसके लिए अनुमति ली और 22 दिनों तक अन्न त्याग दिया जिसके बाद उसकी मृत्यु हो गई थी।